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केजरीवाल के संयमित चुनाव प्रचार की प्रचंड जीत

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सच साबित हुआ अनुमान

न्यूज ब्यूरो। दिल्ली के मतदाताओं का फैसला भविष्य का संकेत है और सहजता से इसकी अनदेखी करना सभी के लिए आत्मघाती हो सकता है। आम आदमी पार्टी ने बड़े ही संयमित अंदाज में चुनाव प्रचार किया और राष्ट्रवाद व सामंजस्यवादी रवैया अपना कर बड़ी अंतर से चुनाव जीता। दरअसल, इससे भारतीय राजनीति को नया आयाम मिला है। हालांकि, दिल्ली की लड़ाई शुरू होने से पहले ही फैसला को लेकर कयास लगने शुरू हो गए थे, जो आखिरकार सच साबित हुआ। बावजूद इसके बीजेपी ने अंतिम क्षणो में भी हार को कबूल करना मुनासिब नहीं समझा। अब इसको बीजेपी का अति आत्म विश्वास कहें या अहंकार? ऐसा भी हो सकता है कि बीजेपी के रणनीतिकारो ने वोटर के मूड को समझने में भूल कर दी हो।

काम के बूते सत्ता के शीर्ष तक

कहतें हैं कि दिल्ली में बरसों बाद यह ऐसा चुनाव हुआ, जब कोई मुख्यमंत्री महज अपने काम-काज के बूते जनता के बीच गया था। यह जानते हुए कि बीजेपी को पराजित करना आसान नहीं है। पिछले छह महीने से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने तौर-तरीकों को तराशा और अपनी रणनीति में व्यापक परिवर्तन किए। पिछले चुनाव में आक्रमक रहने वाले केजरीवाल ने इस बार संयत रुख अपनाया। समूचे प्रचार में केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के खिलाफ एक शब्द नहीं बोले और आखिरकार उनके इस शालिनता का उन्हें लाभ भी मिला। बीजेपी के लाख कोशिशो के बाद भी दिल्ली का चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल नहीं हो सका। नागरिकता संशोधन कानून पर भी केजरीवाल की राय नपी-तुली बनी रही। शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी और उनके हमदर्द मानते रहे कि आम आदमी पार्टी हमारी खैरख्वाह है, पर केजरीवाल बीच का रास्ता निकालने की बात करते हुए आसानी से मंजिल तक पहुंच गए।

बीजेपी की कोशिशे नाकाम हुई

हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और राष्ट्रवाद की बासी कढ़ी में उबाल लाने की बीजेपी की तमाम कोशिशे नाकाम हो गई। बीच चुनाव में भगवान हनुमान की एंट्री हुई और केजरीवाल ने उतने ही चालाकी से हनुमान को भी अपने पाले में कर लिया और बीजेपी के धुरंधर हाथ मलते रह गये। शायद आपको याद हो, जब अन्ना आंदोलन के बाद अरविंद ने चुनाव जीत कर इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा’ का संदेश दिया था। और आज ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हुए सिंहासन तक पहुंच गये। उनका यह राजनीतिक सफर बेहद ही दिलचस्प है।

रणनीतिकारो की बढ़ी मुश्किलें

बहरहाल, बीजेपी की राह धीरे-धीरे मुश्किल होती जा रही है। मई 2018 में हुए कर्नाटक चुनावों के बाद से आज तक राज्य के चुनाव में बीजेपी को सफलता नहीं मिलना। उनके रणनीतिकारो के पेशानी पर बल ला दिया होगा। अलबत्ता, महाराष्ट्र में शिवसेना की जुगलबंदी में बीजेपी ने बहुमत जुटाया था, पर वह जोड़ी ही टूट गई और बीजेपी को सत्ता के गलियारे से बाहर होना पड़ा। जिस जोड़-तोड़ के सहारे कर्नाटक और हरियाणा में बीजेपी ने सरकारें बनाई, वह फॉर्मूला महाराष्ट्र में उसके विरोधियों ने इस्तेमाल कर लिया। यानी विपक्ष ने अब बीजेपी के पींच पर बोल फेकना शुरू करके बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दी है।

विकास से इतर कुछ भी मंजूर नहीं

कहतें हैं कि सियासत में कोई भी रणनीति हमेशा कारगर नहीं होती। समय आ गया है, जब इसके नियंता इस बात पर गौर करें कि जनता-जनार्दन उन्हें राज्य-दर-राज्य पराजय का स्वाद क्यों चखा रही है? यह सही है कि राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी का आज भी दूर-दूर तक कोई विकल्प नहीं है। मई, 2019 के चुनाव इसकी मुनादी कर चुका हैं। पर, भाजपा के खिवैयों को समझना होगा कि 2012 और 2013 के नरेंद्र मोदी भारतीय जनमानस के लिए क्या थे और आज क्या है? आप याद करिए, भारतीय राजनीति में विकास के एजेंटे पर नरेन्द्र मोदी की एंट्री हुई थी, जो आज महज राष्ट्रवाद तक सिमट कर रह गई है। अब यहां एक बार फिर से गौर करें। दरअसल, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राष्ट्रवाद के साथ विकास को बड़ा एजेंडा बनाया था। उनके द्वारा बनाए गए शौचालय, उज्ज्वला योजना, किसानों को छह हजार रुपये की रकम, पेंशनभोगियों के साथ राज्यकर्मियों की हित-चिंता, ऐसे कई कारक थे, जिसने लोगों के मन में यह बैठा दिया कि प्रधानमंत्री को दूसरा कार्यकाल मिलना ही चाहिए, ताकि वह अपना एजेंडा पूरा कर सकें। संदेश साफ है बीजेपी को विकास के साथ सकारात्म एजेंडा पर लौटना ही होगा।

बड़बोलेपन की मिली है सजा

एक बात और देश की राजनीति में बड़बोलेपन की वजह से कॉग्रेस आज अपनी दुर्गति की मुकाम पर है। पर, हालिया दिनो में बीजेपी के कई फायरब्रांड नेता उत्पन्न हो गए है, जो अपने बड़बोलेपन से अक्सर सुर्खियों में रहतें है। नुकसान का यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है। मेरा स्पष्ट मानना है कि सत्ताधारियों को अपनी भाषा को संयत करना ही होगा। चुनाव के दौरान पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसे सहजता से सवीकार करना आम आदमी के लिए कठिन होने लगा है। मतदान के बाद मीडिया और सर्वे एजेंसियों को हड़काने की प्रवृत्ति भी हालिया दिनो में बीजेपी में काफी बढ़ी है। कभी यही काम कॉग्रेसी किया करते थे और 90 के दशक में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद भी। कॉमन मैन इसे राजनीतिज्ञो का अहंकार समझ कर कालांतर में इसकी सजा देते रहें हैं। कॉग्रेस और राजद दोनो इसकी मिशाल है। बहरहाल, बीजेपी को आत्ममंथन करना चाहिए। जाहिर है, वे करेंगे भी। अंत में जबरदस्त बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता पर दुबारा आसिन होने वाले मुख्यमंत्री केजरीवाल को बधाई…।


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